Friday 8 March 2013

और कितना बलिदान?


हर साल ८ मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है. लेकिन आज, हमारे देश में महिलाओं की स्थिति देखकर मेरा सर शर्म से झुक जाता है. हज़ारों सवाल उठ खडे होते हैं जिनका जवाब नहीं ढूँढ पाता मैं. क्या महिलाओं का सम्मान बस किसी खास दिवस तक ही सिमित है? उनकी परिस्थिति के लिए क्या हम जिम्मेदार नहीं हैं? और जो कुछ भी आँखों के सामने आता है, बस शर्म से झुक जाती हैं ये आखें.
हमारा देश हमेशा से नारी प्रधान रहा है. ये वही देश है जहाँ सीता जैसी नारी ने जन्म लिया तो माँ दुर्गा ने राक्षसों का संहार भी किया. ये वही देश है जहाँ हम आज भी माँ लक्ष्मी, माँ दुर्गा, माँ सरस्वती या माँ पार्वती की पूजा करते हैं. ये वही धरती है जहाँ अपनी जन्भूमि को भी माँ का दर्जा दिया गया है. तो फिर क्यूँ हम उसी माँ की प्रतिमूर्ति पर लांछन लगाने से नहीं चूकते? क्यूँ आज हर दिन किसी न किसी नारी का अपमान हो रहा है? क्यूँ हम उसी माँ के किसी और रूप को आदर के दृष्टि से नहीं देख पाते? क्या यही हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति है? या फिर हम अपनी मानसिकता खोते जा रहे हैं?
शायद हाँ. हम अपनी मानसिकता खोते जा रहे हैं. हम दिन से दिन बीमार होते जा रहे हैं. हमारे सोचने समझने की शक्ति खोती जा रही हैं शायद. हम भूलते जा रहे हैं के ये वही माँ है जिसने हमे जन्म दिया और पाला. ये वही बहने है जिसकी रक्षा की कसम हम खाया करते हैं. ये वही दादी या नानी है जो हमें किस्से सुनाया करती हैं. ये वही नारी है जो अपना सबकुछ त्याग कर हमारे सुख दुःख में साथ देती है. और ये वही नारी है जिसकी हम रोज पूजा अर्चना किया करते हैं. आज हम उसी मान या बहन या बीवी के साथ बदसुलूकी कर रहे हैं. हम उसी जननी का अपमान करते हैं. और ये सब करते हुए हमारी आखे सरम से झुकती भी नहीं. क्या ये अच्छी मानसिकता वाले लोगों का काम है. हरगिज़ नहीं. हम खुद को इंसान कहते हैं, अरे हम तो राक्षस कहलाने के लायक भी नहीं. रावन एक राक्षस होते हुए भी अपनी मर्यादा जानता था. सीता माँ का अपहरण करके भी उसने कभी गलत नज़र से नहि देखा.
छेड़ छाड या गंग रेप जैसी घटनाए तो ऐसे आम हो गयीं हैं जैसे के हमने कभी सभ्यता सीखी ही नहीं. कोई निर्भया बलिदान दे देती है और हम इलज़ाम लगाते रह जाते हैं. जुलुस निकालते हैं सरकार के खिलाफ. हंगामा मचाते हैं. और फिर भूल जाते हैं. नेताओं की तो बात ही छोड़ दो. वो तो यहाँ भी अपने मतलब की निकालने से नहीं चूकते. बलात्कार या हत्या जैसे मामलों पर राजनीति की रोटी सेकना तो कोई हमारे नेताओं से सीखे. हिटलर  से कम नहीं हैं हमारी सरकार. शांति के साथ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर भी लाठिया बरसाती है. और जहाँ तक हमारी क़ानून व्यवस्था का सवाल है तो उसमे इतने छेद हैं के कोई भी अपराधी आसानी से बच निकल जाए. तो आखिर जनता जाए कहाँ? अपराधियों को सजा मिले कैसे? हमारी माँ और बहें सुरक्षित कैसे रहें?और हमारा समाज बदले कैसे?
मुझे बड़ी ग्लानी महसूस होती है जब समाज के रक्षक ही इन घटनाओं पर अपनी उल जुलूल प्रतिक्रिया देते हैं. कोई कहता हैं के शादी की उम्र घटा दो तो कोई कहता हैं टीवी चैनल्स बंद करवा दो. सारे किसी न किसी तरीके से अपनी कमियां छुपाने में लगे हैं. तरस आता हैं मुझे इनलोगों पर जो अपना दर्जा बनाये रखने के लिए अपनी गलतियों को किसी और के सर मढ देते हैं. यहाँ तक की हमारे बाबा लोग भी अपनी टिपण्णी देने से नहीं चूकते. हम खुद को मर्द कहते हैं. क्या ये है हमारी मर्दानगी? क्या बलात्कार या गंग रेप जैसी घटनाये हमारी मर्दानगी दर्शाती हैं. या ये हमारी कायरता दिखाती है. अगर हम किसी नारी का सम्मान नहीं कर सके तो लानत है ऐसे मर्द कहलाने पर. शर्म से डूब मारना चाहिए ऐसे लोगों को जो अपनी मर्दानगी इस तरह जाहिर करते हैं.  
कहते हैं व्यक्ति ही समाज का आइना होता है. और सच भी है. व्यक्ति से समाज बनता है न की समाज से व्यक्ति. हम समाज को इलज़ाम देने के बजाए खुद को बदलने की कोशिश क्यूँ नहीं करते? हम बदलेंगे तो समाज का नजरिया बदलेगा. आज अगर हम नारियों का सम्मान करना शुरू कर दे, हम अगर उनकी रक्षा के लिए आगे आये, हम अगर उनके भावनाओं की क़द्र करना सीख जाए. तो ये समाज जरूर बदलेगा. अगर हम अपने बच्चो की पहली हि गलती पर उसे डांटे, उन्हें सबका सम्मान करना सिखाये तो समाज बदलेगा.  हम अगर अपनों की गलती को छुपाने या उसे बचाने की बजाये उसे सजा दें तो समाज बदलेगा. और जिस दिन ऐसा हो गया फिर किसी निर्भया को बलिदान नहीं देना परेगा. और सही मायने में हम एक भारतीय, एक भाई, एक पति या एक बेटा कहलाने के लायक बन पाएंगे.
                                                            कुंदन विद्यार्थी

No comments:

Post a Comment