Thursday 29 December 2016

कविता का मोल

कविता,
बस कुछ शब्द नहीं हैं ये,
न ही कुछ वाक्यों का मेल ,
जो कोरे कागज पर स्याह से नजर आते हों ।
कविताओं के,
उन शब्दों से,
इंकलाब भी आया  है ,
और शांति का प्रसार भी हुआ है ।
कविता में लिखे,
बोलों के गुनगुनाने पर,
प्रेम के फूलों की बरसात भी हुई है,
नीरस जीवन में रस की फुहार बनकर ।
कविता ने हमें सन्देश भी दिया है,
मानव बनकर रहने का,
मानव से मिलकर रहने का,
और अपने स्वाभिमान से समझौता ना करने का ।
कविता ,
कवि के मन में कभी अंगार बन कर,
कभी शीतल सी फुहार बनकर आती है,
और सबको जीवन का मोल बताती है ।
कविता,
शायद एक प्रकृति है,
जो जाने कब कौन सा रूप धर ले,
किसी को नहीं पता ।। कुंदन ।।

Tuesday 27 December 2016

मेरी बगिया फिर उदास हो गयी

1)       सूखती जा रही उस गुलाब की बेल पर,
उस सुबह मैंने हरियाली देखी,
ओस की बूंदों में लिपटी हुई पंखुरियां देखी,
और उन पंखुरियों के बीच अंकुरित हो रही एक नन्ही सी कलि ,

उस बेल की मुस्कराहट,
सहसा ही मेरे लबों को छू गयी,
और मैं ताकता रहा मोतियों में बिंधी,
उस प्यारी कोमल सुन्दर कृति को ,

ऐसे जैसे मंत्र मुग्ध था मैं,
प्रकृति के सौन्दर्य पर,
जो मेरे बगिये में,
उस गुलाब की बेल पर उतर आई थी ,

खुश थी वो नन्ही सी जान भी,
उस बगिये में खुद को पाकर,
छुपकर अपनी प्यारी मृग सी नयनो से,
निहार रही थी अपना जीवन स्थल ,

और शायद सोच रही थी,
अपना आने वाला कल,
जब वो इस बगिये में खुशियाँ फैलाएगी ,
सबके लबों पर मुस्कान बन छा जाएगी |

बेखबर थी वो,
उस नव हरित बेल की चिंताओं से ,
जो हर पल अपनी अन्य क्रितिओं की तरह,
इसे खोने के डर से कुढ़ रही थी मन ही मन |

धीरे धीरे नन्ही कलि,
अपनी पंखुरियों को यूँ फैलाने लगी जैसे,
उड़ जाना चाहती थी उसके ऊपर फैले अनंत आकाश में,
और सारी  दुनिया में अपनी खुशबु फैलाना चाहती थी जैसे |

पर ये क्या,
उस बेल ने अपनी नन्ही के चारों तरफ,
कांटे ही कांटे फैला दिए थे,
पत्तों के झुरमुट में कैद  लिया था उसे |

उसे दुनियां की नजरों से छुपाने  के लिए,
टूटने और कुचले जाने की पीर से बचाने के लिए ,
सपने और सच्चाई में फरक क्या है,
उस कृति को अवगत कराने के लिए |

पर शायद,
कलि को ये रास ना आया,
हवाओं के जोर ने जब भी उसे झिंझोरा,
उसका तन उन काँटों ने जाने अनजाने ही बींध दिया |

बेचारी,
धीरे धीरे अपने आप में सिमटने लगी,
दुनिया से नहीं,
अपने ही सुरक्षाकवच से डरती हुई वो नन्ही कलि |

वक्त बीता पर उसके सपने नहीं लौटे,
ना ही फिर उसके लबों पर मुस्कान ही लौटी,
दुबकी हुयी सी वो कलि,
अश्रु बहाती पुरे बगिये को निहारती रही |

एक एक पंखुरी,
टूटती चली गयी,
और फिर उस नन्ही सी कलि ने,
दम तोड़ दिया |

पथराई  सी बेल,
खुद को संभाल ना पायी,
हताश और निराश हो गयी,
मेरी बगिया फिर उदास हो गयी |

|| कुंदन झा विद्यार्थी || 

Monday 26 December 2016

हिंदी और उर्दू

        हिंदी और उर्दू,
हैं तो दोनों जुड़वाँ बहने,
रूप एक है रंग एक है,
दोनों संग तो फिर क्या कहने |
ख़ुशी एक तो दूजी सदमन,
दिल है एक तो दूजी धड़कन,
लफ्ज एक हैं नाम अलग है,
बस लिबास अलग हैं दोनों के तन |

पर कुछ लोग बड़े नासमझ,
कहते दोनों कहाँ एक है !
एक शाम  है एक सुबह है,
एक फलक तो जमीं एक है |
दोनों के ही अलग भेष हैं,
एक राग है एक द्वेष है,
कैसे कहें के उनके मन में,
अपनापन अब कहाँ शेष है |

आखिर जो कहते फिरते ये,
हिंदी नहीं उर्दू जैसी,
ना ही हिंदी के वो अपने ,
ना वो उर्दू के ही सगे हैं.
वो एक नयी लफ्ज़ में ढलकर,
अपनों को दुत्कार रहे,
अपनी ओछी बातों से,
ममतामयी को हर वक्त ठगे हैं |

उनकी गर मैं कथा बताऊँ,
दोनों लफ्जों को वो रुलाएं,
श्रेष्ठ हूँ मैं कहकर वो अक्सर,
दोनों मन को ठेस पहुचायें ,
अश्रु पलक पर लिए बेहन दो,
एक दूजे को ताक रही है,
सोच रही है दोनों मन में,
दर्द तुम्हारा कैसे मिटाएँ |

हिंदी की व्यथा, उर्दू की जुबां,
सुन समझ सके गर लोग कभी,
तो पीर से व्याकुल अम्मा के ,
मन को सुकून आ जाएगा |

लौटेगी वही मुस्कान लबों पर,
लफ्जों का सम्मान बढेगा ,
हिंदी उर्दू एक एक विधा है,
हर पल इसका मान बढेगा ||


||कुंदन झा विद्यार्थी ||