Thursday 31 January 2013

टुटा सा दिल


पता नहीं क्यूँ आज मैं समझ नहीं पा रहा हू खुद ही को. आखिर चाहता क्या हू मैं खुद से. आखिर मंजिल कहाँ है मेरी. बड़ी ही दुविधा में हू आज मैं. दिमाग कुछ कहता है और दिल कहीं और ले जाना चाहता है. आखिर किस ओर कदम बढ़ाऊ मैं. कौन सा रास्ता सही है मेरे लिए. कुछ भी समझ नहीं पा रहा हू फिर आज मैं.
वो कहते हैं न के दिल है के मानता नहीं, मेरा दिल भी मेरा साथ नहीं दे रहा है आज. मान ही नहीं रहा है मेरी बात. मैं कुछ कहना चाहता हू लेकिन ये तो कुछ सुनने के मूड में ही नहीं है. बस छोड़ जाना चाहता है मेरा साथ. तोड़ जाना चाहता है फिर मुझे. जाने क्यूँ ये ऐसा है आज. शायद खुद में ही उलझा है. या फिर टूटकर बिखर जाना चाहता है खुद में ही.
कल उसे देखा था शाम को. उसे जिसे इसने बसा रखा है खुद में. वो जो धडकन बन बैठी थिस इसकी. मासूम चेहरा, नीली निगाहें और मदहोश कर देने वाली मुस्कान. उसे जिसे ये कभी कह ना पाया दिल की बात. शायद डर था इसे उसके इनकार का. ना जाने कौन से उम्मीद में जिए जा रहा था अबतक. घर बसा रखा था उसके साथ सपनो में ही, लेकिन कल शाम वो घर टूटकर बिखर गया शायद. छोर कर चल दी वो उस घर को. और बेचारा दिल मेरा, आंसू तक  ना बहा पाया. बस घुट सा रहा है तब से खुद में. भाग जाना चाहता है कहीं और, कहीं दूर उसके यादों से. कहीं दूर वीरानों में गुम हो जाना चाहता है. इस भीड़ से और अपनों से भी दूर.
ये तो वहीँ बिखर गया था शायद जहाँ अपने प्यार को देखा था किसी और के बाहों में. और वो खुश थी. लेकिन वो खुशी इसबार मेरे दिल को रास ना आई. ना देख सका एक और पल वो मुस्कुराता हुआ सा चेहरा जो किसी और के आगोश में था. बेचारा, कोई सवाल भी तो नहीं कर सका. करने का हक भी तो नहीं था इसे. इसने तो कभी उस से अपने दिल की बात बतायी ही नहीं. नादाँ था ये दिल मेरा जो उसकी मुस्कराहट को कुछ और ही समझ रहा था.
टुटा तो है लेकिन संभल पायेगा या नहीं, ये नहीं समझ पा रहा हू मैं. लेकिन ये फिर से अपनी गलती नहीं दोहराएगा. नहीं सजा पाएगा फिर कोई सपना या सपनो का घर.
काश! ये वहाँ होता ही नहीं और कुछ देखता ही नहीं. कम से कम खुश तो रहता अपने सपनो के साथ. चाहे वो गलत फेह्मियाँ होती, लेकिन टूटता तो नहीं इस तरह.

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