Wednesday 10 April 2013

दहाड़ता हुआ सा

कुछ शेर, जो आजकल मेरे अंदर उबलते हैं फिर शब्दों के रूप में बाहर आ जाते हैं. देखें कहाँ तक पहुचती है इसकी दहाड़........!!!

१ )   आवारों की बस्ती में फिरता रहा हूँ,
       तुझे याद अक्सर ही करता रहा हूँ,
       जाने कहाँ फिर दिखे तू मुझे, बस,
       ये उम्मीद लेके भटकता रहा हूँ///

२) लाल स्याही देख इसे खून न समझ लेना,
     हैं तो स्याही ही, लेकिन शब्द मेरे लहू से भींगे हैं//

३)   अच्छा हुआ के शीशा जानकार तोड़ दिया तुमने//
      अगर तुम ही नहीं तो ये दिल किस काम का//

४)   ना जाने भीड़ कैसी है, ना जाने होड कैसा है//
      मैं तो तन्हा ही फिसला था, मगर ये होड कैसा है//

५)   मेरी मोहब्बत का तुझे इल्म नहीं शायद//
      तेरा नाम पहले लेता हू और सांस बाद में//

६)   वो तो यूँही चोरी का इलज़ाम देते हैं मुझपर//
      चाहे तलाशी लेले, खुद के सिवा उन्हें कुछ नहीं मिलेगा//

७)   सब्र की बात भला पूछते हो तुम किस से//
      उम्र हमने भी काटी है उनकी राहों में//

८)   जिक्र जब भी मोहब्बत का आएगा//
      शायद तेरा नाम मेरे साथ ही लिया जाएगा//
      मेरा यूँ था के मैं जता भी ना सका//
      और तू खुद से भी छुपाती रह गयी//


९)   मुझे भूल जाना इतना आसान नहीं है ए सलमा//
       तू पलकें बंद करेगी, मैं खाबों में आ जाऊँगा//


१०)  मैं तो कबका छोड़ जाता ये सहर//
       बस डरता हू के तू मुझे और मैं तुझे भूल न जाऊं//
  

११)   एक बार फिर से बेहेक जाने के लिए तो आ//
        मनाने के लिए ना सही, सताने के लिए तो आ//
        मुझे तो बस तेरे दीदार की ललक है//
        दिल में भले ही ना बसना तू, मगर दिल तोड़ जाने के लिए तो आ//
                                                                         कुंदन विद्यार्थी

ये  थे कुछ शेर, जो दहाड़ने की कोशिश कर रहे थे. अब दहाड़ कहा तक पहुचती है ये तो बाद की बात है.

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