Tuesday 18 June 2013

घरौंदा: अतिलघु कथा

थका हारा, लड्खाराते क़दमों से मैं समंदर की ओर बढ़ा चला जा रहा था । जैसे आज तो डुबो ही दूंगा खुद  को इन लहरों में । और फिर चैन की नींद सो जाऊँगा लहरों को तकिया और नीले अम्बर को छत समझ कर । कुछ भी तो बाकी नहीं था बचा अब मेरी जिंदगी में । अपने और पराये कोई भी तो नहीं थे मेरे पास । सब ही तो छोड़ आया था खुद ही । बहुत सारे खयालो के साथ टूटा सा बढ़ रहा था समंदर की तरफ । जीने की हर इच्छा समाप्त हो चुकी थी। बस अब तो इन्ताजार था एक तेज़ लहर का जो मुझे निगल जाए ।
अचानक मैंने एक बच्चे को देखा ।समंदर की लहरों से बेखबर वो अपने काम में लींन था । वह रेत पर रेत से ही कुछ कर रहा था । कौतुहलवश मैं नजदीक चला गया । या यूँ कहें के बच्चे की मासूमियत ने मुझे अपनी ओर खीच लिया ।
वह मेरे उपस्थिति से बेखबर व्यस्त था महल बनाने में । हाँ, महल ही तो बना रहा था वो, रेत का महल । वो इतने प्यार से उसे गढ़ रहा था जैसे के वो उसके सपनो का महल हो । जैसे के ये महल ही उसका सबकुछ हो ।
महल लगभग बनकर तैयार था । अचानक से एक तेज़ हवा का झोंका आया । बालक घबरा गया और  अपने घरौंदे के आसपास यूँ खड़ा हो गया के हवा उसके महल को छू भी न सके । वह यूँ ही सिमटा रहा अपने घरौंदे के इर्द गिर्द जब तक हवा और बरसात थम नहीं गयी । भींगता रहा अपने कृत्य को बचाने के लिए और सहता रहा हवा के हर थपेड़े को एक माँ की तरह जो अपने बच्चे के लिए हर जख्म सह जाती है । और मैं वहीँ खड़ा सब देखता रहा ।
बरसात थम गयी थी और बालक अब अपने नए नवेले घरौंदे को निहार रहा था जैसे उसने अपना सर्वस्व बचा लिया हो और वो अब उसके सामने हो । अचानक स  एक तेज़ और बड़ी ऊँची लहर आई और हमारी तरफ यूँ बढ़ी के जैसे अब हमारी जीवनलीला समाप्त कर के ही दम लेगी । पहले तो मैं बड़ा खुश हुआ पर उस नन्हे बालक को सोचकर सिहर गया । क्या ये बालक भी मेरी तरह इस लहर का शिकार होनेवाला है? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दे सकता । मैंने बच्चे का हाथ पकड़ा और दौर पड़ा किनारे की ओर ।
लहर वापिस जा चुकी थी और हमदोनो उसी जगह वापिस लौट आये थे जहाँ बालक ने घरौंदा बनाया था । पर वो घरौंदा तो समंदर की लहरें लील गयी थी । बालक तड़प उठा । उसकी सारी मेहनत पे पानी फिर गया था । कुछ देर यूँही सुन्य में ताकता रहा और फिर समंदर की ओर जाने किन नज़रों से देखा उसने । फिर अचानक जमीन पर बैठ गया कुछ सोचकर । और रेत से फिर वही खेल शुरू   हो गया । कुछ इसकदर के फिर से वो अपना महल बना कर ही दम लेगा । मैं देखकर दंग रह गया । और खुद पे ग्लानि महसूस होने लगी । अगर बालक में इतनी हिम्मत और इछासक्ति हो सकती है तो फिर मुझमे क्यूँ नहीं । अचानक से मुझमे एक नयी उर्जा आ गेई । मैं अब काफी बेहतर महसूस कर रहा था ।
मैं फिर से जीना चाहता था । मैंने बालक की ऊँगली पकड़ी और बढ़ चला एक नयी दिशा की ओर । अपनी मंजिल की ओर कुछ मजबूत कदमो से ।
    कुंदन विद्यार्थी

No comments:

Post a Comment