Monday 26 December 2016

हिंदी और उर्दू

        हिंदी और उर्दू,
हैं तो दोनों जुड़वाँ बहने,
रूप एक है रंग एक है,
दोनों संग तो फिर क्या कहने |
ख़ुशी एक तो दूजी सदमन,
दिल है एक तो दूजी धड़कन,
लफ्ज एक हैं नाम अलग है,
बस लिबास अलग हैं दोनों के तन |

पर कुछ लोग बड़े नासमझ,
कहते दोनों कहाँ एक है !
एक शाम  है एक सुबह है,
एक फलक तो जमीं एक है |
दोनों के ही अलग भेष हैं,
एक राग है एक द्वेष है,
कैसे कहें के उनके मन में,
अपनापन अब कहाँ शेष है |

आखिर जो कहते फिरते ये,
हिंदी नहीं उर्दू जैसी,
ना ही हिंदी के वो अपने ,
ना वो उर्दू के ही सगे हैं.
वो एक नयी लफ्ज़ में ढलकर,
अपनों को दुत्कार रहे,
अपनी ओछी बातों से,
ममतामयी को हर वक्त ठगे हैं |

उनकी गर मैं कथा बताऊँ,
दोनों लफ्जों को वो रुलाएं,
श्रेष्ठ हूँ मैं कहकर वो अक्सर,
दोनों मन को ठेस पहुचायें ,
अश्रु पलक पर लिए बेहन दो,
एक दूजे को ताक रही है,
सोच रही है दोनों मन में,
दर्द तुम्हारा कैसे मिटाएँ |

हिंदी की व्यथा, उर्दू की जुबां,
सुन समझ सके गर लोग कभी,
तो पीर से व्याकुल अम्मा के ,
मन को सुकून आ जाएगा |

लौटेगी वही मुस्कान लबों पर,
लफ्जों का सम्मान बढेगा ,
हिंदी उर्दू एक एक विधा है,
हर पल इसका मान बढेगा ||


||कुंदन झा विद्यार्थी ||

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