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सूखती जा रही उस गुलाब की बेल पर,
उस सुबह मैंने हरियाली देखी,
ओस की बूंदों में लिपटी हुई पंखुरियां देखी,
और उन पंखुरियों के बीच अंकुरित हो रही एक नन्ही
सी कलि ,
उस बेल की मुस्कराहट,
सहसा ही मेरे लबों को छू गयी,
और मैं ताकता रहा मोतियों में बिंधी,
उस प्यारी कोमल सुन्दर कृति को ,
ऐसे जैसे मंत्र मुग्ध था मैं,
प्रकृति के सौन्दर्य पर,
जो मेरे बगिये में,
उस गुलाब की बेल पर उतर आई थी ,
खुश थी वो नन्ही सी जान भी,
उस बगिये में खुद को पाकर,
छुपकर अपनी प्यारी मृग सी नयनो से,
निहार रही थी अपना जीवन स्थल ,
और शायद सोच रही थी,
अपना आने वाला कल,
जब वो इस बगिये में खुशियाँ फैलाएगी ,
सबके लबों पर मुस्कान बन छा जाएगी |
बेखबर थी वो,
उस नव हरित बेल की चिंताओं से ,
जो हर पल अपनी अन्य क्रितिओं की तरह,
इसे खोने के डर से कुढ़ रही थी मन ही मन |
धीरे धीरे नन्ही कलि,
अपनी पंखुरियों को यूँ फैलाने लगी जैसे,
उड़ जाना चाहती थी उसके ऊपर फैले अनंत आकाश में,
और सारी दुनिया में अपनी खुशबु फैलाना चाहती थी जैसे |
पर ये क्या,
उस बेल ने अपनी नन्ही के चारों तरफ,
कांटे ही कांटे फैला दिए थे,
पत्तों के झुरमुट में कैद लिया था उसे |
उसे दुनियां की नजरों से छुपाने के लिए,
टूटने और कुचले जाने की पीर से बचाने के लिए ,
सपने और सच्चाई में फरक क्या है,
उस कृति को अवगत कराने के लिए |
पर शायद,
कलि को ये रास ना आया,
हवाओं के जोर ने जब भी उसे झिंझोरा,
उसका तन उन काँटों ने जाने अनजाने ही बींध दिया |
बेचारी,
धीरे धीरे अपने आप में सिमटने लगी,
दुनिया से नहीं,
अपने ही सुरक्षाकवच से डरती हुई वो नन्ही कलि |
वक्त बीता पर उसके सपने नहीं लौटे,
ना ही फिर उसके लबों पर मुस्कान ही लौटी,
दुबकी हुयी सी वो कलि,
अश्रु बहाती पुरे बगिये को निहारती रही |
एक एक पंखुरी,
टूटती चली गयी,
और फिर उस नन्ही सी कलि ने,
दम तोड़ दिया |
पथराई सी
बेल,
खुद को संभाल ना पायी,
हताश और निराश हो गयी,
मेरी बगिया फिर उदास हो गयी |
|| कुंदन झा विद्यार्थी ||